तीन महीने की कड़ी मेहनत के बाद एक पैरा कमांडो तैयार होता है। इस सख्त ट्रेनिंग का ही नतीजा होता है कि पैरा कमांडो अपने मिशन में काफी फेल नहीं होते हैं। कमांडो की ट्रेनिंग के दौरान उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता को परखा जाता है। जवानों की पीठ पर ट्रेनिंग के दौरान तीस किलों वजन का जरुरी सामान का लदा रहता है। जिसे लेकर ही उन्हें दिन में 30 से 40 किलोमीटर की रनिंग करनी होती है।
कमांडो बनने के लिए कैडेट्स भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) और अधिकारी प्रशिक्षण अकादमी (ओटीए) से चुने जाते हैं। कमीशंड होने के बाद 5 वर्षों तक स्पेशल फोर्स के लिए वॉलिंटियर कर सकते हैं। प्रोबेशन पीरियड और पैराट्रूपर के बाद चयनित कैंडिडेट तब पैरा स्पेशल फोर्स के लिए अप्लाई कर सकते है। कड़ी ट्रेनिंग के बाद फिर एक वर्ष तक हॉस्टाइल जोन में काम करना पड़ता है। इस बाद ही कैंडिडेट को बलिदान बैज मिलता है।
पैरा (थलसेना) और मार्कोस कमांडो (नौसेना) पानी में मछली की तरह तैरते हैं। यकीन करना मुश्किल है लेकिन ट्रेनिंग के दौरान इनके हाथ और पैर बांधकर पानी में फेक दिया था, जिसमे इन्हे कुल 5 मिनट बिताने होते है। मार्कोज कमांडो का फिजिकल टेस्ट काफी ज्यादा ही मुश्किल होता है यही वजह है कि 80 प्रतिशत कैंडिडेट शुरू में ही छोड़ देते हैं।
गरुड़ कमांडो भारतीय वायुसेना की वो यूनिट से आपातकालीन और बचाव कार्यों में सबसे ज्यादा माहिर होती है। इनकी ट्रेनिंग काफी मुश्किल होती है और तीन वर्ष जो चलती है। ट्रेनिंग के दौरान कैंडिडेट को सेना, एनएसजी और पैरामिलिट्री फोर्सेस की सहायता से स्पेशल ऑपरेशन्स के विषय में पूरी जानकारी दी जाती है, जिसमे जंगल वॉरफेयर और स्नो सर्वाइकल भी शामिल हैं।